जिंदगी में जज्बे की झांकी का दर्शन है मीडिया चक्रव्यूह
आंदोलन जैसा विषय आज की दुनिया में सामान्य जन के लिए चिंतन का मुद्दा भले ही न प्रतीत हो पर जब कोई संवेदनशील व्यक्ति इसकी गहराइयों में झांककर इसके पीछे छुपे कारणों, इससे जुड़े लोगों के अंतरद्वंद्वों, संघर्षों और उनके मर्मांतक दुःख-तकलीफों से परिचित कराने की कोशिश में सफल होता है तो महसूस होता है कि ये सामान्य कहानी नहीं बल्कि व्यवस्था की नग्न सच्चाइयां हैं... और कोई है ऐसा, जो इनको उजागर करने का माद्दा रखता है। अपने एक संपादक मित्र के जरिये यह जानकर कि उनके एक लेखक-अनुवादक दोस्त ने इस विषय पर उपन्यास लिखा है, तो लेखक की इस रचना के प्रति मेरी जिज्ञासा जागी।
उपन्यास के लेखक खुद एक पत्रकार और अनुवादक होने के साथ ही विभिन्न सामाजिक विषयों की पृथक समझ भी रखते हैं। खुद एक मीडिया संस्थान में कई साल सेवा देने के बाद अब स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य के साथ ही अपने गांव-समाज की सेवा में रत् हैं। एक प्रमुख हिंदी दैनिक में बतौर संपादक मैंने भी मीडिया हाउस की तमाम तिकड़में देखीं हैं, उनकी विवशता देखी है तो भ्रष्ट अफसरशाही के दांव-पेच भी देखने का अवसर मिला है, लेकिन सौभाग्य से वैसी परिस्थितियों से दो-चार नहीं होना पड़ा जैसे इस उपन्यास के नायक और दूसरे पात्रों को होना पड़ा।
उपन्यास की शुरुआत मीडिया हाउस के कर्मचारियों के आंदोलन से होती है। कर्मचारियों को चार महीने से वेतन नहीं मिला है। आंदोलन के बीच उनका मुंह बंद करने के लिए एक-दो महीने का वेतन देने की बात उड़ाई जाती है लेकिन अभावों में जी रहे और फिर भी काम कर रहे कर्मचारी इससे संतुष्ट नहीं होते। कर्मचारियों के नेतृत्वकर्ता छगन चौहान को कंपनी का सीईओ सुरेश, मालिक के गुस्से का डर दिखाकर चुप करा देता है। कर्मचारियों का आक्रोश शांत नहीं होता बल्कि वे और भड़क जाते हैं। इसके बाद जयानंद गुप्ता, सुषमा खन्ना समेत नौ-दस लोग आंदोलन की कमान हाथ में ले लेते हैं और कहानी के नायक चंद्रप्रकाश को भी अनिच्छा से ही सही, इस टोली में शामिल होना पड़ता है। चूंकि चंद्रप्रकाश सतत् चिंतनशील और संवेदनशील है, इसलिये वह आंदोलन की निरर्थकता और इसके दुष्प्रभावों के बारे में नेताओं की टोली को आगाह करता रहता है लेकिन कोई सुनता नहीं। आंदोलन की आड़ में अफसरों के बीच अपने हित साधने के षड्यंत्र भी चल रहे होते हैं। साथियों को शुरुआत में पता नहीं चलता कि जयानंद, सीईओ सुरेश को पद से हटाकर खुद सीईओ बनने की साजिश में लगे मुकेश गुप्ता के इशारे पर आंदोलन का रुख मोड़ रहा है। कंपनी का मालिक सुरास गैर वित्तीय संस्थाओं के जरिये किये गये घालमेल के जुर्म में जेल में बंद है। वह कर्मचारी नेताओं को मुलाकात के लिये जेल में बुलाता है लेकिन वेतन देने में असमर्थता जताने के साथ ही वह एक तरह से कर्मचारी नेताओं को धमकाता भी है। जेल में भी सुरास के राजसी ठाठ देखकर कर्मचारी दंग रह जाते हैं। एक तरफ जेल में भी मालिक के ये ठाठ और दूसरी तरफ कर्मचारियों के घरों में रोटी के लाले, इस सच्चाई को पचा पाना कर्मचारियों के लिये आसान नहीं। मालिक के रवैये से भड़के कर्मचारी आंदोलन तेज करते हैं। मुकेश गुप्ता जो चाहता था वही हुआ, आंदोलन को शांत न कर सकने के कारण सुरास, सुरेश को सीईओ पद से हटा मुकेश गुप्ता को सीईओ बना देता है। मुकेश गुप्ता पहले 2 नेतृत्वकर्ता कर्मचारियों को बर्खास्त करता है और फिर कहानी के नायक चंद्रप्रकाश समेत 21 कर्मचारियों को। इसी के साथ आंदोलन ठंडा पड़ जाता है। योग्य कर्मचारी एक-एक कर संस्थान छोड़ जाते हैं।
कथानक तो बस इतना भर है लेकिन लेखक ने इसके बीच में अ-बैंकिंग वित्तीय संस्थानों द्वारा भ्रष्ट तरीकों से अकूत संपत्ति बनाने, सरकारी विभागों-संस्थानों में व्याप्त भ्रष्टाचार, अंतर्राष्ट्रीय जगत में आर्थिक और राजनीतिक दबदबे के उद्देश्य से हथियारों की होड़ जैसे गंभीर मुद्दों पर भी रोशनी डाली है, तो कहीं-कहीं प्रकृति के चित्रण से विषयांतर भी किया है। उपन्यास के पात्र विपिन और वैभवलक्ष्मी की प्रेम-लीलाओं के उद्धरण तमाम दुश्चिंताओं के बीच जिंदादिली का एहसास करा जाते हैं। उपन्यास के कई प्रसंग अपने तंत्र की विसंगतियों और उनके बीच पिसते सीधे-सादे लोगों के अपने प्रसंग हैं।
इस उपन्यास की कथावस्तु साधारण इंसान को सामान्य सी लग सकती है लेकिन जड़ता से मुक्त चेतनशील व्यक्ति के लिये यह वह चश्मा है, जिससे वह भ्रष्ट तंत्र की कारगुजारियों, आम जन की पीड़ा, उसकी विवशता, जीवन के लिये उसकी जद्दोजहद, हार और फिर से जीवन शुरू करने के उनके जज्बे की झांकी का दर्शन कर सकता है।
-प्रकाश
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ऐसा पहला उपन्यास जो :--
· मीडिया की आंतरिक समस्याओं को गहनतापूर्वक प्रस्तुत करता है
·
सामान्य मीडियाकर्मियों के संघर्ष, पीड़ा, शोषण और विवशताओं को रेखांकित करता है
·
अपूर्व कथा के
माध्यम
से
मीडिया
की
विसंगतियाँ
उजागर
करता
है
·
अवैध कारोबार का
सुरक्षा-मुखौटा बने मीडिया के दुरुपयोग के अज्ञात बिंदुओं पर प्रकाश डालता है
·
देश की
राजनीतिक,
सामाजिक,
आर्थिक,
वैज्ञानिक
और
यहाँ
तक
कि
धार्मिक-आध्यात्मिक समस्याओं की परत-प्रति-परत खोलता है
·
अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्रों के आंतरिक उपक्रमों की पड़ताल करता है
·
भारतीय शासन-प्रशासन की
अकर्मण्यता,
विकलांगता
और
जीवनघाती
विसंगतियाँ
प्रकट
करता
है
·
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से प्रचलित पारंपरिक मीडिया को भी अलोकप्रिय बनाया है, इसका औपन्यासिक विवरण देता है
विषय बड़ा ज्वलन्त है . पुस्तक निश्च्त ही पठनीय होगी .
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार। आशा है आप स्वस्थ होंगे।
जवाब देंहटाएंजी, धन्यवाद।
पल्लवी सक्सेना की ओर से उपन्यास पर टिप्पणी:-
जवाब देंहटाएंयह कहने को एक आम आदमी की कहानी है जो कुछ इस तरह व्यक्त की गयी है कि कई दृश्यों में आप खुद को वहाँ खड़ा पाते हैं जहाँ से यह कहानी शुरु होती है अर्थात मीडियाहाउस में जहाँ वेतन ना मिलने के कारण कर्मचारियों की दुर्दशा हो रखी है. जहाँ कार्यालय की राजनीति के चलते उच्च पदाधिकारी अपनी अपनी रोटियाँ सेंकने में लगे है और बाकी आम कर्मचारी उनकी हां में हाँ मिलाने को मजबूर है लेकिन दिखावा कर रहे हैं कि वह आम कर्मचारियों के साथ है. कहानी का यह मर्म आपको कर्मचारियों के बीच होती आपस की तकरार और धरना प्रदर्शन से लेकर आंदोलन तक का पूरा सफर आपको उन सभी चरणों से आत्मसात करवा देता है कि कुछ देर के लिए आप भी अपने आप को उस नारे बाजी आंदोलन का हिस्सा मानकर अपने आप को वहाँ देखने लगते है. मानो सभी कुछ आपकी अपनी आँखों के सामने हो रहा है और यह आपके जीवन का ही एक अनुभव है. जिसमें आत्मचिंतन के दौरान प्राकृतिक प्रेम भी है और भविष्य को लेकर एक गहन चिंता भी कि कैसे आस पास के माहौल से खीजा हुआ व्यक्ति जो आप या हम से कोई भी हो सकता है एक समय के बाद अपने में आप में खुद को कितना हारा हुआ महसूस करता है. ठगा हुआ महसूस करता है और ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उसने कहें को यह दुनिया बनाई और अगर बनाना ही था तो उसे इतना गरीब क्यूँ बनाया. जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है वैसे वैसे पता चलता है कि क्षेत्र चाहे कोई भी क्यूँ ना हो गंदी राजनीति से अछूता नहीं रहता. कैसे इस कंपनी का बॉस जो खुद तो पूरे एश और आराम के साथ जेल की हवा खा ही रहा है लेकिन तब भी कैसे अपनी ही कंपनी के कर्मनिष्ठ कर्मचारियों को उनका वेतन देने से यह कहकर कट रहा है कि उसके पास पर्याप्त राशि नहीं है अपने उन कर्मचारी का वेतन देने के लिए जो उसके लिए दिन रात पूरी ईमानदारी से कार्य करते आये थे. जिसके कारण कंपनी का नाम था शौहरत थी,, आज वेतन को लेकर उन्हीं कर्मचारियों के बीच वेतन को लेकर होती राजनीति जिसमें अन्य सभी सहकर्मियों के हितों का हनन उन्हें साफ दिखाई देता है. किन्तु विवशता इतनी है कि हर कोई लगभग रोज ही खून के घूंटपी पीकर जीता है इस पूरी कहानी में ना केवल कंपनी के कर्मचारी बल्कि उनका परिवार भी चल रही विकट समस्या से खिन्न भिन्न रहते हुए ना चाहते हुए भी अपनों पर ही बात बात में खीज उठते है. वेतन ना मिलने के कारण परिवारों में चिंता है. कि आगे क्या होगा बच्चों की परवरिश से लेकर जीवनयापन तक की व्यवस्था कहाँ और कैसे होंगी. इस पूरी कहानी का भ्रमण जीवन में आयी विकट परिस्थितियों के उतार चढ़ाव के बीच कहीं कहीं प्रेम प्रसंगों के मीठे उन्माद से गुजरता हुआ वापस आपको सच्चाई के धरातल पर ला खड़ा करता है सबसे अधिक रोचक है कंपनी के मालिक से कर्मचारियों की जेल में मुलाक़ात किस तरह से एक घाघ मालिक अपनी ही कंपनी के कर्मचारियों को अपनी रणनीति और राजनीति बुद्धि के बल पर गोल गोल घुमाकर अंत में अपने कुछ चापलूस और चाटूकार व्यक्तियों की मदद से अपना उल्लू सीधा करवा ही लेता है. लेकिन पीछे छूट जाता है किसी से किसी का विछोह, किसी का शहर और उससे जुड़े बहुत से करीबी रिश्ते जिनसे दुःख सुख का साथ रहा था. एक पल को लगता है समय ठहर गया है अब कुछ शेषअच्छा रहा नहीं जीवन में होने के लिए. अब तो चारों ओर केवल अंधकार ही अंधकार है. लेकिन फिर सूरज की नयी किरण से सवेरा होता है एक नयी शुरुआत का... जो ना सिर्फ लेखक के बल्कि पाठक के मन में भी जीवन के प्रति एक सकारात्मक भाव का संचार करता है. आज के परिवेश में जहाँ एक ओर लोग छोटी -छोटी बातों से हार जाते है ओर गलत निर्णय की ओर मुड़ जाते है वहाँ आज यह उपन्यास कहीं ना कहीं हार ना मानने की प्रेरणा भी देता है.