फेसबुक इस देश में 26 सितंबर 2006 में आरंभ हुआ था। इससे पहले आर्कुट पर व्यस्त थी युवा पीढ़ी। शुक्र था कि आर्कुट पर बच्चे, बूढ़े और कामकाजी लोग व्यस्त नहीं थे। यह लेखक उन पहले सौ ग्राहकों में अवश्य रहा होगा, जो फेसबुक के यूजर के रूप में प्रकट हुए। तब इस लेखक के द्वारा अनेक लेख, विचार, इत्यादि फेसबुक की वॉल पर पोस्ट किये जाते थे। कई बार फेसबुक वालों को ईमेल भेजी कि जिसके अधिक फॉलोवर हैं और जो अधिक विचार फेसबुक वॉल पर पोस्ट कर रहा है, उसके लिए कोई मौद्रिक प्रोत्साहन योजना चलाई जाय यानी कि ऐसे व्यक्ति को फेसबुक की तरफ से कुछ धन मिले। पर ना जी।
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फेसबुक वालों ने लेखक के इस सुझाव पर ध्यान ही नहीं दिया। तब फेसबुक एप्लिकेशन के एक-एक टैब और सब-सेक्शन को देख व समझ कर याद रखना आसान था। तब फेसबुक यूजर को पता था कि कौन-सा सेक्शन क्या जानकारी या सूचना लिये हुये है। इसलिये यह लेखक और इस जैसे दूसरे यूजर फेसबुक की तरफ से धन न मिलने पर भी इस प्लेटफॉर्म पर जुड़े रहे और इस पर प्रतिदिन एकाध घंटा गुजार ही रहे थे।
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लेकिन 2006 के बाद 2012 या 2013 में यह फेसबुक वॉल यूजलेस लगने लगी। इसी लेखक को नहीं, अनेक यूजर्स को ये यूजलेस लगने लगी। इसे हिकारत भरी नजर से देखा जाने लगा। जो कोई फेसबुक की चर्चा करता तो उसे अपमानजन्य लताड़-झाड़ पड़ती। ऐसे माहौल में इस लेखक ने तो खुद को इस वॉल से परमानेंटली डिएक्टिवेट कर दिया था। तब परमानेंटली डिएक्टिवेट होने का टैब या कहें सेक्शन भी सरल, सुलभ व आसानी से सभी यूजर्स की पहुँच में था। इसलिये समझदार यूजर्स इस फेसबुक मंच से धड़ाधड़ तेजी से परमानेंटली डिएक्टिव होने लगे।
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लेकिन कोरोना महामारी के वक्त फेसबुक ही नहीं, यूट्यूब, इंस्टाग्राम, स्टारमेकर, इत्यादि सॉफ्टवेयर एप्लिकेशन्स के आईटी इंजीनियर्स ने अपनी-अपनी एप्लिकेशन्स को अनेक सुविधाओं, वीडियोज प्रसारित करने की सुगमताओं और दूसरी फैसिलिटीज से फुलफिल कर दिया। इसका परिणाम यह रहा कि लोग वीडियोज बना-बना कर इन प्लेटफार्म्स पर प्रसारित करने लगे। आज की डेट में ये वीडियोज रील्स कहलाने लगे हैं। अब फेसबुक ही नहीं, हर इंटरनेट चालित वीडियो प्लेटफार्म पर वीडियोज यानी रील्स की बाढ़ आ गई है। जिसके पास मास्टर फोन है, जिसके पास इंटरनेट कनेक्शन है, जिसके पास दुनिया के मेलों में घूमने-फिरने की अनंत कामना पसरी हुई है, वो वीडियोज व रील्स में घुसा हुआ है। और फेसबुक, इंस्टाग्राम व यूट्यूब अधिक फॉलोवर्स, व्यूज, लाइक्स, कमेंट्स, शेयर्स प्राप्त करनेवाले यूजर्स को कुछ धन भी दे रहे हैं।
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इसलिये इस मोड़ से अर्थव्यवस्था ने अपने को हाँकने के लिये इंटरनेट चालित सोशल मीडिया के प्लेटफार्म्स के साथ गंभीरता से जोड़ दिया है। और इसीलिये अब फॉलोवर्स, व्यूज, लाइक्स, कमेंट्स व शेयर्स आसानी से नहीं मिलते। ये सभी अब पैसे, रुपये, धन, मुद्रा, मनी और स्टेटस के पर्याय बन चुके हैं। इसी कारण अब किसी भी यूजर को किसी भी प्लेटफॉर्म पर फॉलोवर, व्यू, लाइक, कमेंट या शेयर यूँ ही बिना स्वार्थ के नहीं मिलते जी। अब ये सभी कुछ चंदा, दान, भेंट, शगुन, सेलेरी, लाभ, मुनाफा, इनकम, बेनिफिट और उधार की कैटेगरी में आ चुके हैं। मतलब कि फॉलोवर, व्यू, लाइक, कमेंट या शेयर यूँ ही नहीं मिलेंगे। चंदा, दान, भेंट, शगुन, सेलेरी, लाभ, मुनाफा, इनकम, बेनिफिट और उधार के बदले में जो आशा की जाती है, जो अपेक्षा की जाती है, जो फेवर चाहिये होता है वही सब कुछ अब फॉलोवर, व्यू, लाइक, कमेंट या शेयर के बदले में भी चाहिये ज्यादातर यूजर्स को।
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लोग होशियार हैं। नेगेटिव रूप में तो ज्यादा होशियार हैं। वे इस जिद पर अड़े हुये हैं कि वे फलाणे की शक्ल पंसद नहीं करते, तो किसी भी सोशल मीडिया पेज पर उसकी फोटो सरकते हुये देखकर उसे क्यों भाव दें। उसे क्यों फॉलो करें। उसकी पोस्ट या पोस्ट्स पर क्यों अपनी फॉलोवरशिप, व्यूज, लाइक्स, कमेंट्स या शेयर्स बर्बाद करें। लोग सोचते हैं कि जब उन्हें बदले में फॉलोवरशिप, व्यूज, लाइक्स, कमेंट्स या शेयर्स मिलेंगे या इन वर्चुअल एक्टिविटीज के अलावा जब उन्हें बदले में रियल लाइफ में कुछ फायदा होगा, तब ही वे फायदा करानेवाले को फॉलो करके उसकी पोस्ट्स को व्यूज, लाइक्स, कमेंट्स या शेयर्स प्रदान करेंगे।
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अर्थात् जो फॉलोवरशिप, व्यूज, लाइक्स, कमेंट्स या शेयर्स शुरू-शुरू में कूड़ा करकट समझकर, बिना सोचे-समझे या यूँ ही दे दिये जाते थे अब वे चंदा, दान, भेंट, शगुन, सेलेरी, लाभ, मुनाफा, इनकम, बेनिफिट और उधार की कैटेगरी में आ चुके हैं। अब ये आसानी से नहीं मिलेंगे। फ्री में ये उसी को मिलेंगे जिनके बीच आपस में खूब पटती है, जो एक-दूसरे की शक्लें पसंद करते हैं, जो वर्चुअल के अलावा रियल लाइफ में एक-दूसरे के किसी न किसी काम आते हैं.........
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और हाँ प्रतिभा, टैलेंट, कुशाग्रता, अद्वितीयता, नवीनता, अभिनवता, कल्याणकारिता, मानवता, मनुष्यता, बुद्धिमत्ता और विलक्षणता के लिये सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर लोगबाग किसी को बगैर स्वार्थ, निःशुल्क रूप में आगे बढ़ाते भी हैं या यूँ कहें उसे फॉलो, व्यू, लाइक, कमेंट या शेयर करते भी हैं तो जान लीजिये सच.... कड़वा है पर सच है..... कि अपने लोग ऐसा नहीं करते......एक व्यक्ति जिनके लिये अनजान रहता है वे अनजान ही ऐसा करते हैं...... एक-दूसरे को बचपन से जानने वाले अधिकतर लोग तो अमेरिका से लेकर उत्तर कोरिया और आस्ट्रलिया से लेकर मंगोलिया तक (यह देश तो इस किचकिच में शामिल है ही) यूँ ही फ्री में मुफ्त में अपनेपन से फॉलो, व्यू, लाइक, कमेंट या शेयर करते ही कहाँ हैं जी!!!!!
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निष्कर्ष यानी कन्क्लूजन : वैसे गलती किसी की नहीं है, चौबीसों घंटे फोन पर सरकते सोशल मीडिया पर कोई कितना, किस-किस को और कब तक फॉलो, व्यू, लाइक, कमेंट या शेयर करता रहेगा। जिंदगी आधुनिकता, प्रगति, शहरीकरण, डिजिटलीकरण, विधर्मीकरण और दूसरे कारणों से पहले से ही उधड़ी हुई है ज्यादातर लोगों की। वे क्या-क्या जी करेंगें? इसलिये जैसा चल रहा है, चलने देते हैं। बस प्रार्थना ये करते हैं कि सोशल मीडिया रोजगार का परमानेंट अड्डा न बन पाये, प्रार्थना करते हैं कि सरकारें रोजगार के लिये कोई व्यावहारिक मॉडल स्थापित करे, सोशल मीडिया जैसा वर्चुअल मॉडल कुछ हद तक रोजगार का मॉडल प्रतीत हो सकता है, पर अधिक समय तक यह कारगर नहीं है। यदि सरकारें ऐसा नहीं करेंगी, तो मनुष्य व मनुष्यता को चबाने को आतुर सोशल मीडिया के विनाश की प्रार्थना कैसे कर पायेंगे प्राकृतिक जीवन चाहनेवाले!
@विकुब
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