शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

कविता के बारे में आत्मज्ञान

 

कविता के बारे में आत्मज्ञान

कविता! यह शब्द क्या अभिव्यक्त करता हैइस शब्द को क्या अभिव्यक्त करना चाहियेकायिक रूप में व्यतीत जिन कवियों की कवितायें कविताप्रेमियों को याद रहती हैंउन्होंने अपनी कविताओं में किस विषय पर क्या-क्या लिखाजहां-जहां भी जो कवितायें पढ़ीं या पढ़ता हूं तो तात्कालिक पठनानुभव से कविता के बारे में आत्मज्ञान जाग्रत हुआ। इस ज्ञान के प्रकाश में स्पष्ट हुआ कि कविता शब्द उपयोगिता का पर्याय है। कविता का संधिविच्छेद कवि़ता है। अर्थात कवि के रूप में मनुष्य के भावों का ता। ता अर्थात् उपयोग। ता अर्थात् मनुष्य काया के जीवन और उसकी मृत्यु के बीच में उत्पन्न होनेवाला प्रेम व अनुराग। प्रकृति से प्रेम। प्रकृति के असंख्य जीवोंक्रमोंउपक्रमोंयमोंनियमोंऋतुओंरंगोंसुगंधों से अनुराग। इन परिस्थितियों में प्लावित मनुष्यों के मध्य उत्पन्न होनेवाला प्रेम। कविता के ता से आशय है व्यक्ति की सकारात्मक मनोदशा। ता से तात्पर्य सुरताननादगीतसंगीत। ता का अर्थ है सुरताननादगीत व संगीत में उपजी प्रसन्नतासंजीविताप्रफुल्लता एवं जीवन से संबंधित उपादेयता। ता माने उमंगतरंगउत्साहसमुत्साहमधुभावमधुरतम भावना। ता प्रकृति के अदृश्य नादगीत-संगीतवाद-संवादभावों-भावनाओं को परिभाषित करता है। ता ईश्वर भी है। ता जीवन है। ता मृत्यु है। परन्तु उक्त सभी आशयतात्पर्यअर्थमाने ता में प्राकृतिक रूप में होते हैं। ता में कुछ भी कृत्रिमताभौतिकताआधुनिकता और कुंठ-कुंठा ये युक्त होकर प्रवेश नहीं कर सकता। यदि ये सभी ता से बलात जुड़ने का प्रयास करते हैं तो ता अर्थात कविता अपठनीयअविचारणीय और उपेक्षित हो जाती है। ता का एक शब्द में जो श्रेष्ठ वर्णन हो सकता हैवह है प्रकृति। प्रकृति के विपरीत जगत जिस बिंदु से चलना आरंभ हुआ थातब से लेकर आज तक कविता का शनैः-शनैः पतन होता रहा। वह जिसके लिए सृजित होती रहीउसी मानव अर्थात् पाठक से दूर होती रही।

            पुराने कवियों ने कविता के लिये जो प्रयास कियेवे प्राकृतिक प्रयास थे। वे कविता के ता का प्रकृतिप्रदत्त पर्याय थे। इसीलिये उनके द्वारा सृजित कवितायें आज तक संवेदनशील पाठकों को याद रहती हैं। उनकी कविताओं के प्रति आज के संवेदनशील मनुष्य भी उत्प्रेरित होते हैं। परन्तु ऐसे कवियों के प्राकृतिक-स्वाभाविक सृजन को मूल्यांकन एवं समालोचना के अनेक वर्गों में विभाजित करनेवाले तथाकथित मूल्यांकनकर्ताओं व समालोचकों ने कविता और कविता के पाठकों के बीच में एक विभाजक दीवाल खड़ी कर दी। ये लोग यह नहीं समझ पाये कि कवि का प्राकृतिक-स्वाभाविक सृजन स्वयं में जैसा भी थाउपयोगी और पर्याप्त था। समाज की साहित्यिक उन्नति की आड़ मेंभला उसे वर्गों में विभाजित करने की आवश्यकता ही क्यों पड़ गयी थी। अवश्य ही इसका कवितासाहित्य और समाज के हित में कोयी उपयोग न था। कविता का काल एवं वाद आधारित विभाजन संभवतः शिक्षा अकादमियों की स्थापना करनेअकादमियों से जुड़े पूंजीपतियों के पूंजीगत हितों को साधने तथा अकादमियों से संबद्ध तथाकथित विद्वानों के विद्व-एकाधिकारों व उनके स्वार्थ बचाने के लिये हुआ।  

            हालांकि कवि कुछ भी लिखेवह स्वयं का मूल्यांकन अथवा समालोचना नहीं करता। परन्तु आदिकाल के बाद जो भी विभिन्न काल साहित्यिक गणनाओं में आयेउनमें कवियों-लेखकों के लिखे का मूल्यांकन किया जाने लगालिखे की समालोचना की जाने लगी। परन्तु मूल्यांकन हमेशा समुचित नहीं रहा। समालोचना पद्य अर्थात् कविता के उद्धार हेतु नहीं हुयी। रीतिभक्तिआदि......जितने भी काल साहित्यिक सृजन की गणना में लगे रहे और छायारहस्यआदि......जितने भी वाद लेखन के मूल्यांकन को लेकर तैनात रहेक्या लिखनेवाले के लिये उनका कोयी महत्व हो सकता हैकविता रचनेवाले ने दिव्य संवेदनाओं से भरकर कुछ शब्द रच दिये। इन शब्दों को किस काल या वाद के वर्ग में रखना हैभला इस कर्म की क्या आवश्यकता थी। ऐसा विभाजन क्यों किया गयाइसका उद्देश्य क्या थाक्या यह इतना आवश्यक थामैं मानता हूं कि इसकी कोयी आवश्यकता नहीं थी और अब भी नहीं होनी चाहिये। अन्यथा सदियों से उभरते इसके दुष्परिणामों से वर्तमान में और भविष्य में भी मुक्ति नहीं मिल सकती।

            कविता अपनी ता की परिभाषा एवं प्राकृतिक पर्यायों से इसलिये वंचित होती गयीक्योंकि यह शासकों और पूंजीपतियों के हाथों में आ गयी। ऐसा शताब्दियों से होता आ रहा है। कविता की आड़ में मनुष्य के मन-मस्तिष्क की कुंठाओंविकारोंव्यभिचारोंभ्रमोंभ्रांतियों एवं दुर्गुणों को बाहर निकालने का सर्वाधिक प्रश्रय यूरोपीय देशों में मिला। कुछ ढायी-तीन सौ वर्षों से वामपंथ के विकार का तीव्र उभार हुआ। इस पंथ के अंधविश्वासी लोगजो शब्दों-अक्षरों को लिखना-पढ़ना जान गयेउन्होंने कविता को इसके प्राकृतिक पर्यायों से पूरी तरह अलग कर दिया। इनके लिये कविता पूंजीपतियोंगरीबीभुखमरीआदि का विरोध करने का अस्त्र बन गयी। वास्तव में पूंजीपतिगरीबीभूख का इनका विरोध खोखला विरोध था। गरीब का भला उसकी गरीबी का वर्णन करके नहींअपितु अपनी जेब से धन देकर उसे कुछ खरीदने लायक बनाने से होता। भूखे का उद्धार कविता में अनावश्यक शब्द उकेर कर नहींबल्कि भूखे को भोजन कराकर होता। पूंजीपतियों का पराभव उनके विरोध में कविता करके नहींउनकी सारी समाजिक-शासकीय व्यवस्था की व्यावहारिक उपेक्षा करके होता। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। गरीबीभूख और पूंजीपतियों के विरोध का तो व्यर्थाभ्यास होता रहापर इनके कारणजनसंख्या वृद्धिके बारे में कोयी बात नहीं उठी। ये नहीं देखा गया और अब भी नहीं देखा जा रहा कि 1947 में 30 करोड़ की जनसंख्या वाला देश 2020 तक 1 अरब 50 करोड़ जनसंख्या का देश हो चुका है।

            यूरोपचीनसोवियत संघ यानी आज के रूस और इनके दुष्प्रभावों से ग्रस्त अनेक देशों से होते हुये वामपंथ के उक्त विकार भारत में भी कविता में उभरने लगे। जब से कविता में वामपंथियों की कुंठायें समाने लगींतब ही से कविता ही नहींहर प्रकार का साहित्य अधिसंख्य पाठकों द्वारा तिरोहित होने लगा। धीरे-धीरे साहित्य मरने लगा। कविता मरने लगी। साहित्य और कविता में वामपंथी कुंठाओं के विष बोये जाने लगे। इनके कारण कविता अपनी प्राकृतिक-स्वाभाविक लयतालछंदआशयसौन्दर्यशब्दों और साहित्य से अलग हो गयी। ऐसे लोगों द्वारा कविता की आड़ में लिखे गये शब्द परस्पर इतने उलझे हुये होते हैं कि समझ ही नहीं आते। लिखनेवाला क्या लिखना-कहना चाह रहा हैपता ही नहीं चलता।

            क्या पहले अपने प्रकृत-स्वरूप में कविता कवियों के भावार्थ को समझाने में कठिन जान पड़ती थीनहींकिंचित नहीं जान पड़ती थी। कविता को इसके ता के पर्यायोंप्रकृति एवं प्रवृत्ति के साथ रचनेवाले कविगणों के शब्द-शब्द और उनके भावार्थ इतने शक्तिशाली होते थे कि रोगी पाठक को भी स्वस्थ कर देते थे। पहले की कविताओं का विस्तृत मूल्यांकन भी इसीलिये साकार हो पाता थाक्योंकि कविता के भावार्थ स्पष्ट और अनेकायामी होते थे। कुछ ही शब्दों में रचित ऐसी कविताओं की पुस्तकाकार समालोचनायें भी इसलिये संभव हो जाती थींक्योंकि कविता संदर्भित विषय के साधारण-असाधारण अनुभवों के साथ उसके गूढ़ानुभव को भी पाठकों के लिये सहज बोधी बनाती थी।

4 टिप्‍पणियां:

  1. "यूरोप, चीन, सोवियत संघ यानी आज के रूस और इनके दुष्प्रभावों से ग्रस्त अनेक देशों से होते हुये वामपंथ के उक्त विकार भारत में भी कविता में उभरने लगे। जब से कविता में वामपंथियों की कुंठायें समाने लगीं, तब ही से कविता ही नहीं, हर प्रकार का साहित्य अधिसंख्य पाठकों द्वारा तिरोहित होने लगा। धीरे-धीरे साहित्य मरने लगा। कविता मरने लगी।"
    ये वाकई शोध का विषय है|

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  2. पूर्णतः सहमति। समझ में नहीं आता है कि आज कविता का अर्थ आनन्द न हो कर आक्रोश क्यों हो गया है? बस अपनी दमित कुंठाओं की विद्रूप अभिव्यक्ति। तब तो रोचक होने के स्थान पर केवल रोदन हो रहा है। सच में कविता खुद रोती होगी अपनी दुर्दशा पर।

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  3. बस एक पंक्‍ति...''पुराने कवियों ने कविता के लिये जो प्रयास किये, वे प्राकृतिक प्रयास थे। वे कविता के ता का प्रकृतिप्रदत्त पर्याय थे'' ...आज हमें सोचने पर विवश करता है वडोला जी ..बहुत खूब

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  4. यही तो अफसोस है, न सिर्फ कविता से बल्कि जीवन की हर शह से प्रकर्ति अब पूर्णतः विलुप्त हो चली है।

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