जब से सोशल मीडिया अस्तित्व में आया, पारंपरिक पत्रकारिता की सच्चाई सामने आ गई। सोशल मीडिया के जितने भी
उपक्रम हैं, उनके निर्माण के पीछे की भावना पहलेपहले यह
बिलकुल नहीं थी कि ये आम आदमी की अभिव्यक्ति के लिए हैं और इनसे दुनिया के सभी
लोगों को स्वयं को अभिव्यक्त करने का एक अवसर मिलेगा। सोशल मीडिया के माध्यमों
का एकमात्र और सोचा-विचारा गया उद्देश्य सूचना प्रौद्योगिकी व्यापार के आधार पर
धनार्जन करना था। इसलिए जिस देश में सूचना प्रौद्योगिकी उपक्रमों और संसाधनों का
जितना अधिक विकास हुआ, उस देश के श्रेष्ठ सूचना
प्रौद्योगिकी विशेषज्ञों ने इनफॉर्मेशन मोबिलाइजेशन यानि चल-सूचना तंत्र विकसित
किए और आज इससे खूब धनार्जन कर रहे हैं।
आज फेसबुक, ट्विटर,
इंस्टाग्राम, लिंक्ड इन, व्हाट्स ऐप जैसे
वर्तमान लोकप्रिय सोशल मीडिया माध्यमों से जुड़कर लोग स्वयं की बातों, अनुभवों और जिज्ञासाओं को प्रकट कर रहे हैं। विशेषकर सहस्राब्दियों की अस्वस्थ
मानवीय सोच-समझ के परिणामस्वरूप पनपी मनुष्यों की कुंठाएं आज के युग के मनुष्यों
द्वारा सोशल मीडिया के माध्यमों पर स्पष्ट रूप से इस तरह प्रकट हो रही हैं कि
सोशल मीडिया खुद के सदुपयोगी स्वरूप से विमुख होकर विभिन्न लोगों के मध्य अनेक
अनावश्यक विषयों पर वाद-विवाद करने का खतरनाक अड्डा बन चुका है।
सोशल मीडिया के दुष्परिणाम इसके प्रयोगकर्ता
दो विपरीत विचारों के व्यक्तियों को केवल अपने मंच पर ही वैरी नहीं बना रहे बल्कि
इसका प्रभाव व्यक्तियों के सामान्य जीवन में भी देखा जा सकता है। व्यक्ति सोशल
मीडिया की लत में इतना डूब चुका है कि वह इससे, जितना संभव
हो, हर समय जुड़ा रहना चाहता है और अपने द्वारा लिखी गई किसी
बात या प्रस्तुत किए गए किसी चित्र पर अपने सोशल मीडिया मित्रों की पंसद और टिप्पणियों
की प्रतीक्षा में कई सूचना प्रौद्योगिकी जनित भ्रमों, रोगों
और लिप्साओं से घिरता जा रहा है।
सोशल मीडिया के साथ बने रहने की लत के कारण अधिकांश लोगों का सामान्य
जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। लोग खाना-पीना और अन्य दैनिक गतिविधियां भूलकर
इससे चिपके हुए हैं। सोशल मीडिया के कतिपय मंचों जैसे फेसबुक,
ट्विटर और व्हाट्स ऐप पर बड़ी जनसंख्या की आसन्न व्यस्तता की
स्थिति यह है कि उसे प्रतिपल-प्रतिदिन मानव जीवन की अनुभूति से विरक्ति हो रही है।
ऑनलाइन बहु स्तरीय भ्रमावरण रोग से ग्रस्त होकर न चाहते हुए भी अधिकांश लोग
धीमे-धीमे मशीन में परिवर्तित हो रहे हैं।
कैसी विडंबना है कि एक ओर तो सूचना प्रौद्योगिकी के समस्त उपक्रम व्यापार
करने और पैसा कमाने का शक्तिशाली तंत्र बने हुए हैं, तो दूसरी ओर सार्वजनिक जनसंचार के रूप में यह अरबों लोगों की चेतन-अवचेतन
भावनाओं-दुर्भावनाओं के ज्वार से निकली अभिव्यक्तियों के माध्यम भी बने हुए
हैं। जैसे कि मानव जीवन में किसी भी बात, घटना, सेवा, संसाधन और विचार के अच्छे-बुरे दोनों पहलू
होते हैं, वैसे ही सूचना प्रौद्योगिकी के अंतर्गत सोशल
मीडिया माध्यमों के भी हैं। लेकिन चिंताजनक प्रश्न है कि बाकी क्षेत्रों की तरह
इस क्षेत्र के अच्छे-बुरे पहलुओं का मूल्यांकन कौन करेगा। कौन यह निर्णय करेगा
और कैसे यह सहज ही सर्वमान्य होगा कि सोशल मीडिया का यह पहलू अच्छा या वह पहलू बुरा
है। इसी तरह अनेक लोगों के विचारों का अध्ययन कर कौन यह निर्धारित करेगा कि यह
विचार मूल्यवान है या वह विचार मूल्यहीन तथा कैसे मूल्यवान व मूल्यहीन विचार
निर्धारित करनेवाले व्यक्ति का इस कार्यक्रम के लिए जीवनोचित योग्यता के बहुमत
के आधार पर चयन हो सकेगा। ये कुछ प्रश्न हैं, जो अभिव्यक्ति
के नाम पर व्याप्त जन भावनाओं और दुर्भावनाओं से पटे पड़े सोशल मीडिया माध्यमों
को देखने के बाद स्वत: ही मन-मस्तिष्क में आ रहे हैं।
केवल सोशल मीडिया ही नहीं अपितु मुख्यधारा
के मीडिया में भी कई समूह हैं, जो जीवन की अच्छी-बुरी विचारधाराओं में बंटे हुए
हैं। कुछ समूह मानव जीवन की आस्तिक धारणाओं का समर्थन करते हुए जनसंचार का दायित्व
संभाल रहे हैं, तो कुछ समूह नास्तिक विचारों से सहमति
प्रदर्शित करते हुए उस प्रकार का जनसंचार बना रहे हैं।
मनुष्य जब तक अपरिपक्व होता है, वह
इनमें से किसी भी समूह की ओर आकर्षित हो सकता है। बल्कि अपरिपक्व मानव तो उत्तरदायित्वों
से हीन नास्तिक विचारों के पोषक जनसंचार समूहों के प्रति शीघ्र लगनशील हो जाता है।
निस्संदेह परिपक्व होने और अपने विवेक से सोचने-विचारने की अवस्था में उसे
नास्तिक विचारों का जनसंचार समूह अरुचिकर लगने लग जाए या उसे उस पर अनास्था होने
लगे, लेकिन उस पर नास्तिक विचारों का प्रारंभिक दुष्प्रभाव
जीवनभर रहता है। एक प्रकार से वह आस्तिक होने की इच्छा रखते हुए भी और नास्तिकता
के दुष्चक्र से बाहर न निकल सकने की विवशता के कारण वैचारिक रूप से किंकर्त्तव्यविमूढ़
हो रहता है। वह अंतत: दो विपरीत विचारधाराओं के कारण दोनों
के प्रति मध्यमार्गी बन जाता है तथा यही स्थिति मनुष्य के लिए सबसे अधिक
हानिकारक है। इस तरह वह अपना जीवन बर्बाद ही कर देता है।
दूसरी ओर आस्तिक भाव-विचारों के साथ प्रारंभ से जुड़े मानवों का
जनसंचार भी श्रेष्ठ होता है। उनमें परस्पर सेवा, कल्याण, प्रेम, उदारता,
परोपकार की सद्भावनाएं विकसित होती हैं जिनके बल पर वे अपने जीवन को
प्रतिपल सार्थक करते चलते हैं। ऐसे लोग नास्तिक लोगों के लिए भी मित्र होते हैं,
उनके लिए भी उदारता रखते हैं। लेकिन चूंकि नास्तिक लोग असुर होते
हैं, उनकी नियति में सदाचरण और सन्मार्ग अपनाना नहीं होता, इसलिए वे सदैव आस्तिकता के सिद्धांतों और आस्तिक लोगों से वैर-भाव बनाए
रखते हैं। उनका ज्ञान उन्हें इतना भी उदार नहीं बना सकता कि वे आस्तिक-नास्तिक के
द्ंवद से निकलकर जीवन में सामान्य मानवीय संबंध स्थापित कर पाएं या प्रमुदित
होकर एक-दूसरे का अभिनंदन कर पाएं।
आज सोशल मीडिया पर ऐसे ही आस्तिक और नास्तिक लोगों का विचार-युद्ध चल
रहा है। नास्तिक लोगों के विवादों और कुतर्कों की स्थिति यह है कि यदि आस्तिक-समूह
के व्यक्ति कहते हैं कि शुद्ध जल के सेवन से स्वस्थ हो सकते हैं तो नास्तिक
शक्ति के मोहपाश में बंधे लोग शुद्ध जल को भी ईर्ष्या भाव से देखने लगते हैं। यदि
नास्तिक-समूह के लोगों के साथ अनेक विषयों से संबंधित वाद-विवाद की प्रतिपल की
तनातनी से मुक्ति के लिए आस्तिक-समूह के लोगों द्वारा उन्हें विचार-युद्ध से अलग
मल-युद्ध के लिए चुनौती दी जाती है तो वे कायरों की तरह अपने कुतर्की विचारों को
ओढ़ चुप्पी साध लाते हैं।
शास्त्रों में उद्धृत है कि विसंगत
विचारों का समर्थन करनेवालों को पहले प्रेम व शांति से समझाया जाता है किंतु धर्म
की मर्यादा के अंतर्गत इसकी भी एक सीमा होती है और यदि यह सीमा समाप्त हो जाती
है, तो विसंगत विचारों के समर्थकों का संहार करना ही पड़ता है ताकि संसार में
मानवीयता का धर्म बचा रहे।
भारत में नास्तिक व आसुरी लोगों, कई
वर्षों तक जीवन को कुतर्कों से परिचालित करते हुए आए विचारकों और इनके वर्षों के
वैचारिक राज को अंत करने का शंखनाद हो चुका है। सोशल मीडिया इसमें देश का साथ दे
रहा है, तो यह प्रसन्नता की बात है। यदि सोशल मीडिया के इस अभियान में कुछ अनर्गल
भी होता है, तो उसकी यह समझकर अनदेखी की जानी चाहिए कि यह अभियान सहस्राब्दियों की
अनर्गल सामाजिक-राजनीतिक सत्ता के नास्तिक-कुतर्की-विवादित संचार व्यवस्था को
ध्वस्त करने के लिए ही प्रारंभ हुआ है। निस्संदेह लोगों द्वारा सोशल मीडिया
इंटरनेट साइट से जुड़ने और उसमें अधिकाधिक समय व्यतीत करने का लाभ अमेरिकी व चीनी
सोशल मीडिया साइट नियंत्रक कारोबारियों को ही क्यों न हो, परंतु यह उपक्रम
दीर्घकालीन भारतीय-विचार स्थापना के लिए अब उस मीडिया से तो लोगों को छुटकारा
दिलाने लगा है जो अंग्रेजों से भी अधिक अमानवीय शासकों-प्रशासकों की छत्रछाया में पिछले
70 वर्षों से जनमानस को हांक रहा था, राजनीतिक दलों व इनके नेताओं के संकेतों पर परिचालित
होता आ रहा था।
लेकिन सोशल मीडिया वेबसाइटों में भी ऐसा सद्प्रयास कुछेक लोगों
द्वारा ही किया जा रहा है। शेष लोगों की भीड़ तो इस पर अनावश्यक और व्यर्थ
कथोपकथन को प्रसारित करने तथा उस पर क्रिया-प्रतिक्रिया देने पर ही लगी हुई है,
जिसका कदाचित सदियों के वैचारिक पृष्ठांकन में कुछ भी मूल्यांकन न हो सकेगा।
विकेश कुमार बडोला
सटीक विश्लेषण ।
उत्तर देंहटाएंसोशल मीडिया के जहां कुछ फायदे हुए हैं वहां इसके दुष्परिणाम भी उजागर हुए हैं और मुझे लगता है अभी इस मीडिया को आये हुए कुछ ही समय हुआ है ,... जब ये पूर्णता की और बढेगा लोग स्वयं ही शायद समझ जाएँ की किस सीमा तक इसका प्रयोग करना है ...
उत्तर देंहटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ..... very nice ... Thanks for sharing this!! :) :)
उत्तर देंहटाएंधीरे-धीरे सबों को समझना ही होगा कि इस आभासी दुनिया से अत्यधिक सुंदर वास्तविक दुनिया है और सबसे सुंदर जीने के लिए मिला जीवन है । इसका सीमित उपयोग ही होना चाहिए । वैसे हम कमलवत हैं ...
उत्तर देंहटाएंसच्ची बात
उत्तर देंहटाएंhttp://savanxxx.blogspot.in