लगातार दो
वर्षों से कश्मीर पर शांति वार्ता करने का परिणाम आखिर क्या रहा। पिछले वर्ष की
वार्ता के बाद उड़ी में सेना के शिविर पर आतंकी हमला हुआ, जिसमें हमारे 18 सैनिक
शहीद हुए। इस बार की शांति वार्ता हुए अभी एक महीना भी नहीं बीता था कि उड़ी जैसा
ही हमला करने की मंशा से आए तीन आतंकवादी श्रीनगर एयरपोर्ट के बाहरी द्वार से लगी
सीमा सुरक्षा बल की 182वीं बटालियन के शिविर में घुस गए और अंधाधुंध गोलियां
बरसाने लगे।
नौ घंटे तक चली मुठभेड़ में
अंतत सुरक्षाबलों ने तीनों आतंकियों को ढेर कर दिया। आतंकियों ने जिस तरह बीएसएफ
शिविर की चाहरदीवारी से सटी फ्रेंड्स कॉलोनी की दीवार से होते हुए शिविर के मुख्य
द्वार तक आने की योजना बनाई और आखिर में जिस तरह वे द्वार से होकर शिविर के मेस व
प्रशासनिक खंड तक पहुंचने में सफल हुए, उससे स्पष्ट होता है कि वे मुख्यालय के
शस्त्रागार तक पहुंच कर बड़ा हादसा करना चाह रहे थे। सुरक्षाबलों की सक्रियता और
परिस्थिति को संभालने की योग्यता के कारण, शुक्र है आतंकियों के मंसूबे पूरे न हो
सके। एक आतंकी को तो सुरक्षा बलों ने मुख्य द्वार पर ही मार गिराया गया लेकिन
दूसरे व तीसरे आतंकियों को ढेर करने में नौ घंटे लग गए। बीएसएफ के जिस शिविर में
आतंकी बड़ा हादसा करने के मकसद से घुसे थे, उसी में सुरक्षाबलों के परिवार भी एक
आवासीय कॉलोनी में रह रहे थे। आतंकी हमले को देखते हुए आवासीय कॉलोनी खाली कराते
समय और सैन्यकर्मियों के परिजनों को
सुरक्षा कवर देने के दौरान सहायक उपनिरीक्षक बृज किशोर यादव आतंकी की गोलियों के
चपेट में आ गए और शहीद हो गए।
नित होते आतंकी हमलों को
देखकर लगता है कि कश्मीर के संदर्भ में केंद्र सरकार के सारे सकारात्मक प्रयास
विफल ही रहेंगे। चाहे यह प्रयास पिछले वर्ष से शुरू हुई शांति वार्ताओं के नए दौर
के रूप में हों या राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद पालने के लिए पाक
को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के बीच साक्ष्य सहित आरोपी राष्ट्र सिद्ध करने के रूप
में। लगता नहीं कि भारत की इन कोशिशों से पाक या फिर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पर
कोई फर्क पड़ा है या पड़ रहा है। यदि ऐसा होता तो निश्चित रूप से अभी तक पाक पर आतंक
व कश्मीर के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी कोई न कोई कठोर प्रतिबंध जरूर
लगाती। अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में महत्वपूर्ण और बड़ा दखल रखनेवाले देश ही जब
अपने यहां आतंक से जूझ रहे हों, तो वे आतंकग्रस्त भारत की पीड़ा को भला प्राथमिकता
के आधार पर कैसे महसूस कर सकते हैं। कश्मीर में पाक प्रायोजित आतंक के पूर्ण
निपटान के लिए जो भी करना है, भारत को ही करना होगा और दृढ़तापूर्वक करना होगा।
लेकिन हमारी सैनिक छावनियों
पर निरंतर हो रहे आतंकी हमलों को ध्यान में रखकर अब तो यही लगने लगा है कि खुद
भारत और भारतवासी कश्मीर में आतंक को अपनी एक कठोर नियति मान चुके हैं। अब देश
में शहीदों की संख्या के आधार पर रोष व दुख का आवेग फूटता है। जितने ज्यादा
सैनिक शहीद होंगे, जनता का रोष व पीड़ा उतनी ज्यादा होगी और परिणामस्वरूप सरकार
पर भी कश्मीर के संदर्भ में कुछ त्वरित-तात्कालिक निर्णय लेने का ज्यादा दबाव
पड़ेगा। लेकिन यदि आए दिन होनेवाले आतंकी हमलों में एक-दो सैनिक ही शहीद होंगे, तो
न जनता ही आंदोलित होगी और ना ही सरकार आतंक का प्रतिरोध करने के लिए कोई विशेष
कदम उठाएगी। यह कश्मीर को लेकर किसी भी संवेदनशील भारतीय नागरिक की एक उकताहट हो
सकती है, जो कश्मीर के आतंक के संदर्भ में स्वाभाविक ही है।
कश्मीर में पाक पोषित आतंक
को लेकर केवल जनता ही निराश नहीं हैं अपितु सरकारी व सैन्य तंत्र भी इस विषय पर बुरी तरह खिन्न
हैं। इन्हीं कारणों से कुछ अव्यक्त व सर्वथा अपरिभाषित सामाजिक, शासकीय और सैन्य
समस्याएं भी उत्पन्न होती हैं, जिनकी आड़ में दशकों से व्याप्त आतंक सहजा से फलता-फूलता
रहता है।
सामाजिक समस्या यह है कि,
अंग्रेजों से आजादी के वक्त देश का विभाजन न रोके जा सकने की आत्मग्लानि से
बचने के लिए तत्कालीन नेताओं ने इस देश के नागरिकों को जो धर्मनिरपेक्षता की
घुट्टी पिलाई तथा जिस आधार पर हिन्दू-मुसलिम के बीच बनावटी एकता दिखाने का नाटक
खेला गया, वह आज पाक प्रायोजित आतंक से अस्थिर कश्मीर समस्या के रूप में हमारे
सामने एक वास्तविक नाटक बन कर उभरा है। यह भला कैसे हो सकता है कि दो विपरीत विचारोंवाले
समुदाय अपनी भिन्न-भिन्न धार्मिक धारणाओं के आधार पर एक होकर रहें। और जिसने भी
आरंभ में राजनीति के लिए ऐसे निरर्थक उपाय से अपना राजनीतिक भविष्य चमकाने का
दुस्साहस किया होगा, वह कितना धूर्त व्यक्ति रहा होगा। इस देश के लिए वह कितना
संघातक रहा।
शासकीय समस्या यह है कि,
शासन करनेवालों को समाज की विसंगत विचारधाराओं, धार्मिक धारणाओं को विवशतापूर्वक
इसलिए अनदेखा करना पड़ रहा है क्योंकि उन्हें केवल और केवल शासन करना है और खुद
को जीवन के आखिर क्षण तक हर रूप में सुरक्षित रखना है। उनके लिए देश की सुरक्षा
अपने बाद आती है। कम से कम तीन वर्ष पूर्व तक इस देश में यही राजनीतिक विचारधारा
थी।
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विकेश कुमार बडोला |
सैन्य समस्या यह है कि, व्यवहार
में सैनिक भी शहीद और देशभक्ति जैसे शब्दों की सच्चाई से उसी रूप में अवगत हैं,
जिस तरह शहीद और देशभक्ति जैसे शब्द जेएनयू में पढ़नेवाले आतंक समर्थकों की नजरों
में हैं। इसलिए वे आतंकी वातावरण में अपेक्षित सैन्य सक्रियता, योग्यता, विशिष्टता
तथा पराक्रम के पैमानों को अपनी ही दृष्टि में कुंद कर चुके हैं। वे जानते हैं कि
राजनेता कश्मीर समस्या का स्थायी हल केवल और केवल उनकी भलाई को ध्यान में
रखकर कभी नहीं निकाल सकते। वे इस कटु सत्य से भी भलीभांति अवगत हैं कि वे एक निश्चित
माहवार वेतन पर अपनी सैन्य सेवाएं देश को दे रहे हैं तथा भाग्यशाली रहे तो
आतंकियों का प्रतिरोध करते हुए भी बचे रहेंगे और दुर्भाग्य हावी रहा तो अपने
शिविरों में आराम करते हुए भी आतंकी हमलों में मारे जाएंगे। आतंक का राजनीतिक
मंशाओं के अनुरूप प्रतिरोध करने के लिए सैनिक भी आखिर कब तक सैन्य पराक्रम व
शिष्टिताओं से सुसज्जित होते रहेंगे। जब तक आतंकवाद के विनाश के लिए त्वरित स्थायी
समाधान नहीं होगा, सैनिकों के बलिदान ऐसे ही व्यर्थ जाते रहेंगे।
प्रभावी विश्लेषण ।
उत्तर देंहटाएंसबको पता है जरूरत किस बात की है काश्मीर में ... पर हर पार्टी मुंह छुपाती है ...
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