ढंग से याद भी नहीं कि कितने दिन पहले की बात है, जब अविनाश वाचस्पति जी ने
मुझे फोन पर अपनी बेटी के विवाह में आने का निमंत्रण दिया था। बल्लभ डोभाल को भी उन्होंने
सादर निमंत्रित किया था। उस समय सोचा था कि अवश्य जाऊंगा, पर फिर पता नहीं क्या
हुआ कि नहीं जा पाया। अब सोचता हूँ कि काश उनकी बेटी के विवाह में चला जाता तो
उनसे भेंट कर लेता।
वे दिन याद आ रहे हैं जब उनके व्यंग्य
संग्रह 'व्यंग्य का शून्यकाल' की समीक्षा राष्ट्रीय सहारा में छपी थी। समीक्षक
आलोक पुराणिक थे। कहीं से यह संग्रह मुझे मिला तो मैंने खुद पढ़े बिना ही इसे यह
सोचकर बल्लभ डोभाल जी को दे दिया कि इस पर उनकी राय जान ली जाए। पता नहीं डोभाल
जी उन दिनों किस मानसिक स्थिति में थे कि उन्हें बारंबार संग्रह पढ़ने की याद
दिलाता, पर वे उसके किसी अध्याय की एकाध पंक्तियां पढ़ते और कह देते, 'अरे क्या
है इसमें, कुछ नहीं है।' मुझे उनकी इस तरह की उदासीनता पर अचरज होता कि इतना बड़ा
और वयोवृद्ध लेखक यह क्या कह रहा है।
लेकिन कुछ दिनों पहले ही अचानक डोभाल
जी के घर पर पहुंचा तो देखा वे 'व्यंग्य का शून्यकाल' लेकर बैठे हुए थे। उत्सुकतावश
पूछ बैठा, 'क्या अविनाश का फोन आया था आपको?'
'हैं…! क्यों क्या हो गया उसे?' डोभाल जी पुस्तक सहेज कर और टेबल लैंप का स्विच बंद करते हुए बोले।
'नहीं…बस मैंने देखा कि आप उनकी पुस्तक पढ़ रहे
हैं तो शायद उनका फोन आया हो।'
'अरे…! यह तो बहुत अच्छी किताब है। अच्छे व्यंग्य साधे हुए हैं उसने। कहां है
आजकल वो?'
आश्चर्यचकित होकर मैंने व्यंग्य करते हुए कहा, 'आप तो कहते थे कि इस किताब
में कुछ नहीं रखा। तो आज अचानक आपने किताब कैसे पढ़ ली! और आश्चर्य कि आपको अच्छी भी लगी!'
'कभी-कभी जब पढ़ने का मन
करता है तो निकाल लेता हूँ कोई किताब।' डोभाल जी ने उदार भाव-भंगिमाएं बनाते हुए कहा।
मैं उनके घर से जाते
हुए यही सोचता रहा कि किसी लेखक की कोई कृति किसी बड़े लेखक की एक विशिष्ट मानसिक अवस्था
में उसके पढ़े बिना ही व्यर्थ भी हो सकती है और अगर वह उसे पढ़ने लगे तो उसे अच्छी
भी लगने लगती है। वहां से आते हुए मैं उनसे कह आया था कि अविनाश को फोन कर देना कि
आपने उसका व्यंग्य संग्रह पढ़ा और आपको अच्छा लगा।
….और आज वही व्यंग्यकार संसार में नहीं रहा। जो संसार अपनी विचित्र और विडंबनापूर्ण
घटनाओं-परिघटनाओं-दुर्घटनाओं से उसे विचलित करता, आज वह उस संसार को छोड़ कर कहीं किनारे
लग गया। सुशील कुमार जोशी और सतीश सक्सेना जी के ब्लॉगों पर अविनाश के निधन की खबर
देखकर हृदय कांप उठा।
इंटरनेट के आभासी समाज में जिस व्यंग्यकार से अप्रत्यक्ष भेंट हुई और एक या
दो बार ही जिससे फोन पर बात हुई, आज जब वह सशरीर दुनिया में नहीं है तो लगता है जैसे
उसे उसके बचपन से जानता हूँ। कभी डोभाल जी से ही मालूम हुआ था कि अविनाश साहित्यिक
क्षेत्र की बुराइयों व विसंगतियों से बचने के लिए प्रकाशन उद्योग में उतरने की भी योजना
बना रहे हैं। पर उनके ये अरमान अब उन्हीं के साथ विदा हो गए हैं।
इस दुनिया से विदा होने के बाद ईश्वर उन्हें सहारा दे,
यही कामना और यही श्रद्धांजलि है अविनाश वाचस्पति के लिए।
आह ! नुक्कड़ सच में अनाथ हो गया ।
उत्तर देंहटाएंनमन, ब्लॉग जगत के स्तम्भ रहे अविनाश जी ....
उत्तर देंहटाएंनमन है एक प्रभावी व्यंग लेखक अविनाश जी को...
उत्तर देंहटाएंनमन है एक प्रभावी व्यंग लेखक अविनाश जी को...
उत्तर देंहटाएंअविनाश जी को विनम्र श्रद्धांजली ... एक प्रभावी व्यंग लेखक थे अविनाश जी ...
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