श्रम दिवस हर वर्ष की तरह आता है और
श्रमिकों के लाभार्थ प्रभावी एवं कल्याणकारी नीति के बने बिना चला जाता है। यह
सिलसिला उताना ही पुराना है, जितनी पुरानी श्रमिकों की संघर्ष कथा और इससे मुक्ति की उनकी उत्कंठा।
देश में श्रमिक वर्ग के लोगों के हितों के लिए लागू श्रम कानून अपनी कोरी कल्पना
के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। इक्कीसवीं सदी के भारत में आज भी श्रमिकों को उनके
मूलाधिकारों से वंचित रखा गया है। उस पर त्रासदी यह कि महंगाई, मंदी और गरीबी से सर्वाधिक इन्हीं को
पीड़ित होना पड़ता है। देश में सबसे कम आमदनी के कोने पर खड़ा, अपने रहने के असंगठित क्षेत्रों में
बिना नाप-जोख किए वस्तुओं को मजबूरन सबसे महंगी दरों पर खरीदनेवाला यह वर्ग, चौतरफा मार झेल रहा है। सरकार द्वारा
इनके कल्याणर्थ बने कार्यक्रम ठोस समन्वय की कमी और भ्रष्टाचार से उपजी लालची
कार्य-प्रणाली में उलझ कर रह जाते हैं।
श्रम कानूनों के अन्तर्गत श्रमिकों के हितों में से इनके प्रमुख हित
रोजगार को साधने में भी हमारी सरकारें पूर्णत: असफल हैं। तब ऐसी सरकारों के तथाकथित श्रम कानूनों के अधीन हम कैसे
श्रमिकों के महती विकास एवं कल्याण की अपेक्षा कर सकते हैं। यहां चिंता केवल सुव्यवस्थित
और समयानुकूल रोजगार उपलब्ध कराने तक नहीं है। जीवन-सुरक्षा, अस्पताल-व्यवस्था, पढ़ाई-लिखाई, पेंशन,
मार-मन्दी में आपातकालीन राहतें आदि
अनेक ऐसी अनिवार्य आवश्यकताएं हैं, जिनकी श्रमिकों के लिए अब तक कोई स्थायी और आसान व्यवस्था नहीं
हैं। निर्माण, भारी निर्माण, वितरण, विपणन, परिवहन एवं अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों में स्थायी व अस्थायी रूप
से कार्यरत अनेक श्रमिक घोर उपेक्षाग्रस्त हैं। इनके कल्याण हेतु सामाजिक कर्तव्य
के इन कार्यों को केवल सरकारों द्वारा ही ठीक ढंग से क्रियान्वित किया जा सकता है, पर इस आशय की इनकी उम्मीद को सदैव
ग्रहण लग जाता है।
इनके आवास इलाकों में मूलभूत जरूरतों जैसे विद्यालय, अस्पताल,
सरकारी राशन की दुकानें, जल, बिजली एवं अन्य सुविधाओं की अत्यन्त कमी है। यदि कहीं पर ये
सुविधाएं उपलब्ध हैं भी तो वे क्षेत्रीय एकाधिकार के अधीन होकर निष्प्रभावी बनी
हुईं हैं। जहां श्रमिक वर्ग के लोग रहते हैं, सामान्यत: वहां की दूकानों में दैनिक जरूरत की चीजें उचित, शुद्ध नहीं मिलतीं। वहां नकली वस्तुओं
से दुकानें भरी रहती हैं। कोई चाहकर भी शुद्ध वस्तुएं नहीं खरीद सकता। इन
क्षेत्रों की समस्त व्यापारिक गतिविधियां माफियाओं की सांठगांठ से चलती हैं। परिणामस्वरूप
ऐसे असंगठित क्षेत्रों में भारतीय मानक पर सत्यापित दैनिक उपभोग की व अन्य आवश्यक
वस्तुएं कभी उपलब्ध नहीं रहतीं। जब इन क्षेत्रों के लोगों का श्रम मूल्य कहीं न
कहीं किसी न किसी रूप में सरकार के खाते में भी जाता है तो फिर ये लोग माफियाग्रस्त स्थानीय
इलाकों के व्यापारियों की मनमर्जी का कोपभाजन क्यों बनें? क्यों अपनी श्रम-शक्ति
से उपार्जित आय से अवैध और नकली वस्तुओं को खरीदने के लिए विवश हों? और कब तक?
श्रमिक वर्ग इन उपरोक्त समस्याओं से ही नहीं निपट पा रहे हैं तो
अपने श्रमिक अधिकारों को अक्षरश: जानने, उनके क्रियान्वयन हेतु जागरुक बनने और उनसे प्राप्त किसी राहत की
कल्पना भी नहीं कर सकते, जबकि देश के विकास के क्रम में बुनियादी लकीर भी इन्हीं के द्वारा
खींची जाती है और उसकी अन्तिम ईंट भी इन्हीं के हाथों लगाई जाती है। फिर भी नीति-निर्धारक देश के विकास में सहायक इनके अहम योगदान को कही भी
समर्थन देने को तैयार नहीं हैं। इसके इतर पढ़े-लिखे श्रमिकों को भी उनकी समुचित सेवाओं
के प्रतिफल में बहुत थोड़ा मूल्य ही मिल पा रहा है। यहां तक कि श्रम साध्यता के
अन्तर्गत विद्वतापूर्ण अवस्था भी मूल्यांकनकर्ताओं को नहीं झकझोर पाती।
समाज में बढ़ते भ्रष्टाचार और बेईमानी ने श्रमिकों को भी नहीं छोड़ा
है। श्रम कानून अपने क्रमवार व्यावहारिक पहलुओं को धता बताते हुए सिर्फ श्रम
कानूनी पुस्तकों तक सिमट कर रह गए हैं। भारत जैसे देश में जहां संगठित-असंगठित
क्षेत्रों के अनेक निर्माण एवं अन्य कार्यों में अनगिनत श्रमिक लगे हुए हैं, वहां श्रम कानूनों के प्रभावी क्रियान्वयन
के साथ-साथ इनकी निश्चित समयांतराल पर समीक्षा भी होनी चाहिए। असंगठित क्षेत्रों
की कठिन जीवन परिस्थितियों से डरकर न तो सरकारी और ना ही सामाजिक संगठनों द्वारा
यहां पर कोई जागरुकता कार्यक्रम चलाया जाता है। इन्हें इनके नागरिक संवैधानिक
अधिकारों के अन्तर्गत प्राप्त होनेवाली बिजली,
पानी,
अस्पताल और विद्यालय जैसी सरकारी, संगठित सुविधाओं तक का अभाव भी झेलना
पड़ता है।
जब नागरिक संवैधानिक अधिकारों के अधीन नि:शुल्क प्राप्त होनेवाली सरकारी
सुविधाएं इन श्रमिकों तक नहीं पहुंच पा रही हों तो अपने श्रम के अवमूल्यन से
निपटने की इनकी इच्छाशक्ति को व्यावहारिक बनाकर कौन सरकार तक पहुंचाएगा? प्रश्न यह भी बड़ा ही विचित्र है कि स्वयं
सरकार भी इस बारे में क्या कर रही है? सरकार, पूंजीपतियों, सरकारी अधिकारियों और प्रबुद्ध-समृद्ध मनुष्यों, सभी का कर्तव्य है कि श्रमिकों को उनके अधिकार दिलाने में योगदान
करें।
(मूल रूप से १ मई २००९ को दैनिक राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित)
विकेश कुमार बडोला