कुछ दिनों से सुन रहा
हूँ कि पुरस्कार लौटाए जा रहे हैं। यह भी सुन रहा हूँ आजकल कि देश छोड़ने जैसा भी
कुछ जनसंचार में चल रहा है। क्या समाचारों में ये अनावश्यक विषय ही बने रहेंगे,
यह भी सोचने को विवश हूँ। खूब खाते-कमाते हुए कह देना ये हैं पुरस्कार, लो हम इन्हें
लौटा रहे हैं और घोषित करना कि मैं देश छोड़ जाऊंगा तो इसमें कोई दूसरा क्या कर
सकता है। इन्हें लौटाने दो पुरस्कार, छोड़ जाने दो देश, क्या फर्क पड़ता है। यदि
जनसंचार ये समाचार न दिखाए तो आम जनता की सेहत पर इन अति सामान्य गतिविधियों से
क्या अन्तर पड़नेवाला है। निस्संदेह कुछ भी नहीं। पुरस्कार लौटानेवाले और देश
छोड़नेवाले धनी लोग हैं। ये पुरस्कार लौटाएं या देश छोड़ दें, इन्हें भूखा नहीं
रहना पड़ेगा और ना ही सड़क पर आना पड़ेगा, इस बात की तो तसल्ली है, तो क्यों इनके
लिए कुछ नौसिखिए पत्रकार व लेखक अपनी मति खराब कर रहे हैं।
इन
घटनाओं और इन पर होनेवाली निरर्थक क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं से यह बात पूरी तरह
सिद्ध हो गई कि बौद्धिक होने का दंभ पाले हुए कुछ लोग वास्तव में वैचारिक कुण्ठा
से ग्रस्त हैं। इन्हें जीवन में सार्थकता और जन-कल्याण जैसे कार्यों से कोई
सरोकार नहीं है। ये कहीं न कहीं अपनी निरर्थक बौद्धिकता के बूते सीधी-सच्ची पुरातन
भारतीय व्यवस्था में छिद्रान्वेषण कर रहे हैं। जो व्यक्ति सच में जन-कल्याण कार्यों
को करते हुए मर-खप गए या गई-गुजरी जीवन-स्थितियों में हैं, क्या जनसंचार को उनका पता
है। पता हो या न हो, पर क्या कभी वे जनसंचार में इस तरह छाए रहते हैं जैसे अपने लिए
धनार्जन कर आज के लेखक-साहित्यकार-नेता-अभिनेता छाए हुए हैं।
मैं
तो मन से इस तथाकथित बौद्धिक जगत से बहुत दूर हूं। मुझे इनके होने या न होने से कोई
सरोकार नहीं। शायद इनको भी मेरे होने या न होने से कोई सरोकार न हो। लेकिन इन्हें
इसका ध्यान तो रखना ही पड़ेगा कि प्राकृतिक रूप से इस दुनिया में वही विचार-बुद्धि
या विवेक प्रस्थापित हो सकता है, जिसके मूल में सत्य-मानवीयता-धर्म-मर्यादा हो। ये
लोग जिस सोच या विचार को लादे हुए चल रहे हैं, उसका कोई मूल ही नहीं है। और जब सोच-विचार
का मूल ही नहीं तो यह सत्य-मानवीयता-धर्म-मर्यादा के सर्वश्रेष्ठ सांसारिक गुणों
के साथ हो ही नहीं सकते। ऐसे विचारकों को अपनी व्यक्तिगत वैचारिकी बढ़ानी होगी। इन्हें
दुनिया-समाज और इनके अंदर घटनेवाली घटनाओं को खुद के निजी नजरिए से देखना होगा। ऐसा
होगा तो निश्चित रूप से इनकी सोच में सकारात्मक परिवर्तन होगा। तब इन्हें साहित्य-बौद्धिकता-विचार-लेखन
के लिए उस धारा पर चलने की कभी आवश्यकता नहीं पड़ेगी, जिसकी मनुष्यता को कोई जरूरत
नहीं।
मुझे
यह मानने में भी कोई हिचक नहीं कि आज का अधिकांश लेखन-साहित्य सुविधाओं का लेखन और
साहित्य है। सभी जैविक सुविधाओं से सम्पन्न आज के लेखकों-साहित्यकारों की भीड़ को
कोई भी सिरफिरा नामवर लेखक या साहित्यकार यदि अपनी पतित विचारधारा में बहाए लिए जा
रहा है, तो यह सिर्फ साहित्य की कमी है। यदि सच में साहित्य लिखा जा रहा होता और
अधिकांश लेखक-साहित्यकार शुद्ध-सच्चे साहित्य को ग्रहण करते, तो यह स्थिति कभी नहीं
उत्पन्न होती, जो आज इस देश में पुरस्कार लौटाने और देश छोड़कर जाने के नाम पर हो
रही है। सैद्धान्तिक बात यह है कि पुरस्कार लौटाने और देश छोड़ने के पीछे के निर्णय
और इन पर होनेवाला हल्ला निकृष्ट है। इसका देशव्यापी उल्लेख करना ही निरर्थक है।
विकेश कुमार बडोला
पूर्ण सहमति है आपके विचारों से जो कुछ मैंने सोचा आपने वही लिख दिया। यह सारा अपने न्यूज़ चैंनल की टी.आर.पी बढ़ाने हेतु मीडिया का फैलाया हुआ रायता है और कुछ भी नहीं।
उत्तर देंहटाएंपुरुष्कारों को लौटाना या देश छोड़ कर जाने की बात करना केवल समाचारों में बने रहने का एक प्रयास है. मीडिया को तो अपनी टी.आर.पी. बढाने के लिए कुछ मसाला चाहिए जो ये लोग उन्हें बहुत आसानी से दे रहा है. बहुत सटीक और सारगर्भित आलेख...
उत्तर देंहटाएंइस देश में सबकी अपनी अपनी राय है। सभी अपनी जगह सही हैं। किसी को कुछ गलत होता दिख रहा है तो कुछ लोगों वह नजर नहीं आ रहा। खैर अच्छी पोस्ट प्रस्तुत की है आपने।
उत्तर देंहटाएंसैद्धान्तिक बात यह है कि पुरस्कार लौटाने और देश छोड़ने के पीछे के निर्णय और इन पर होनेवाला हल्ला निकृष्ट है। इसका देशव्यापी उल्लेख करना ही निरर्थक है।. बिलकुल सत्य। ..
उत्तर देंहटाएंशब्दशः सहमत .
उत्तर देंहटाएंपुरस्कार तो एक जरिया है लेकिन मूल विषय तो धार्मिक असहिष्णुता का है. इस पर चर्चा उचित है या अनुचित या अपनी विचारधारा और अपना विश्लेषण है. पर यह माहौल एक सच्चे प्रजातंत्र की आत्मा से रु-ब-रु कराता है जहां सहमति या असहमति के स्वर को एक मर्यादा के तहत रखने का प्रावधान हमारे संविधान ने दिया हुआ है.
उत्तर देंहटाएंसुंदर और प्रासंगिक प्रस्तुति।
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