आंखों पर कई परतों में काली पट्टी बांध कर
केवल भविष्य, विकास के बारे में सोचनेवालों को अचानक इतिहास में दर्ज होने की याद सताने लगी है।
स्वार्थ का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है! जिन्हें अपने पुरखों के इतिहास पर गर्व होना चाहिए था आज वे
उस विराट ऐतिहासिक परम्परा के केवल बाहरी आवरण को ही ओढ़ पाने में सक्षम हैं। उनके
आदि धर्म, परम्परा, संस्कार ने स्वयं को स्थापित करने में जैसी समस्याएं
झेलीं, जिनके कारण झेलीं उन तत्वों से मित्रता करने को वे मरे जा रहे हैं। उनका
इतिहास जिस धार्मिक विशालता के लिए जाना जाता है उससे शायद वे परिचित भी नहीं हैं।
जैसे बलिदान, सामूहिक बलिदान उनके वंशजों ने अपने धर्म के पक्ष में किए हैं वे अन्य
धर्मावलम्बियों के लिए भी अन्तर्प्रेरणा हैं। और धर्मभावना के जिस मूल बिन्दु से
उनके धर्मदर्शन को एक नया आयाम मिला, जिससे मूल धर्म भी कई प्रकार से परिमार्जित
और परिष्कृत हुआ, उसकी अपेक्षा की बजाय वे उसकी उपेक्षा के मतवाहक बन रहे हैं।
यदि कोई चाहे कि उसकी मृत्यु के बाद जीवित
लोग उसकी चर्चा करें तो उसका ये कर्तव्य भी बनता है कि वह शासन-समाज के शीर्ष पर
बैठ कर समाज के युवाओं को संस्कारित करे। उन्हें वैसी शिक्षा-दीक्षा दे जो उन्हें
ज्ञानार्जन करने और ज्ञान का समुचित प्रयोग करने के लिए प्रेरित करे। वर्तमान के
शासक क्या अच्छा-बुरा कर रहे हैं यदि यह इतिहास में दर्ज होता है और वे भावी
पीढ़ियों से इसे पढ़ने की अपेक्षा करते हैं तो उन्हें कम से कम इस हेतु एक आधार तो
बनाना ही पड़ेगा। आधार से तात्पर्य यहां यह नहीं है कि वे अपने बारे में असंख्य
पुस्तकें प्रकाशित करवा कर उन्हें पुस्तकालयों में संग्रहीत कर दें, सजा दें।
आधार से अभिप्राय है कि मार्गदर्शक वर्तमान किशोरवय और नौजवान पीढ़ी के लिए आदि
संस्कारों से अन्तर्सिंचित होने का मार्ग प्रशस्त करे। ना कि अपनी तरह केवल उन
आदि संस्कारों के बाह्य आवरण को लपेटे रहने का अभिनय करे और वास्तव में धतकर्मों को बढ़ावा देनेवाले शासकीय निर्णय, कर्म करें।
इतिहास की मोटी पुस्तकों को रुचि से पढ़ने के लिए पाठकों में
असीम धैर्य, विवेक, संवेदना होना बहुत जरूरी है। और अगर पाठकगण आधुनिकता, विकास के
नाम पर फैलाए जा रहे भोग-विलास में आकण्ठ डूबे रहेंगे तो वे इतिहास कैसे पढ़ेंगे? ऐसे में उन्हें अपने वर्तमान, अपने
बारे में ही ज्ञात हो सके कि वे मानव हैं और कुछ समय के लिए ही धरती पर विद्यमान
हैं तो यही पर्याप्त होगा। लेकिन दुखद तो ये है कि नई पीढ़ी वर्तमान और अपने आप से
भी अनभिज्ञ हो चुकी है। विलासिता की एकल चाल से अलग कोई चलना ही नहीं चाहता। ऐसे
में इतिहास इकट्ठा करने का क्या लाभ? कौन इसे पढ़े, इससे प्रेरणा ले और इसके अच्छे-बुरे पाठ के अनुरूप
अपने व्यक्तित्व का निर्माण करे?
एक तरह से इतिहास भी खुद को दोहराता है। जब
आज के वयस्कों, वृद्धों ने अपने से पूर्व के इतिहास को सम्मान नहीं दिया तो उनके
साथ भी तो वैसा ही होनेवाला है। उन्होंने कब अपने वंशजों की सुविचारित जीवन
पद्वतियों का सही अनुसरण किया, वे कब अपने से पूर्व के जीवन की सर्वश्रेष्ठ
बातों-कार्यों को अपने जीवन में उतार पाए! यही उनके साथ भी होनेवाला है।
यदि आपको लगता है कि वर्तमान जनसंचार माध्यमों ने आपकी
उपलब्धियों को नहीं गिनाया और आपके किए गए देशहितैषी कार्यों का समुचित प्रसार
नहीं किया तो यह गलत है। आपके राजकाज के दौरान उठे बवाल, हुए घोटाले और नवउदारवाद
की विध्वसंक उथल-पुथल के बावजूद भी आपके ही केन्द्रीय शासन के अन्तर्गत कार्यरत
सूचना एवं दृश्य प्रसार निदेशालय (डीएवीपी) ने आपके कार्यकाल के दौरान किए गए
कार्यों और योजनाओं के प्रचार-प्रसार पर अरबों रुपया फूंका। क्या प्रचार-प्रसार
पर खर्च करने के लिए यह राशि और माध्यम कम है? यदि आपके किए गए का वास्तव में कोई प्रभाव होता तो लोगों की निराशा
प्रतिबिम्बित होकर आपके चेहरे पर नहीं आती। ऐसे में आपके नेतृत्व का कौन सा पाठ
इतिहास दर्ज करेगा पहले तो यही जटिलता देश के सामने है, दूसरा यदि आप इतिहास में
दर्ज हो भी जाते हैं तो आपको पढ़ने की रुचि समाप्त करने में भी आपका और आपकी
योजनाओं का ही हाथ था, है और होगा।
अपने गौरवशाली इतिहास की अवहेलना करके कोई कैसे गौरवशाली इतिहास हो सकता है!